देहरादून। सामाज़िक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो माता-पिता अपने नन्हे से अबोध शिशु से कितना अपार स्नेह, कितना प्रेम किया करते हैं? वे अपने बालक के पीछे-पीछे बच्चों की तरह दौड़ते-फिरते भी हैं और उसे बरबस अपनी गोद में उठाए रखते हैं, यह भी नहीं देखते कि बच्चा धूल-मिट्टी से सना हुआ है। वे जनते हैं कि उनका बालक उन पर ही पूर्ण रूप से निर्भर है। न तो उसे दुनियादारी की समझ है और न ही अच्छे-बुरे की कोई पहचान ही है। माता-पिता उस बच्चे पर पूरी तवज्जो देते हुए हर पल उसे अपना सानिध्य दिए रहते हैं। ठीक इसी प्रकार से सद्गुरूदेव भी हुआ करते हैं, जिनके लिए कहा गया- त्वमेव माता च पिता त्वमेव…… अर्थात गुरू माता-पिता, भाई-बन्धु-सखा के साथ-साथ परम विद्या के प्रदाता और द्रविणम त्वमेव….. अर्थात द्रव्य (धन-धान्य) प्रदान करने वाले भी तुम्हीं हो। सद्गुरूदेव को भी अपनी गोद में अबोध शिशु ही भाता है। एक बार योगानन्द परमहंस जी से उनके एक शिष्य ने पूछा था, ‘हे गुरूदेव, शास्त्र गुरू को भी तो माता-पिता का दर्जा देता है लेकिन फिर हमारे साथ एैसा विरोधाभास किस लिए?’ योगानन्द जी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से शिष्य की ओर देखा तो वह बोला कि एक शिष्य आपके लिए तो नन्हा बालक ही है फिर जब बालक चलते-चलते थक जाए, अनेक कठिनाईयों में घिर जाए फिर आप उसे अपनी गोद में क्यों नहीं उठाते? इस पर योगानन्द कहते हैं कि ‘वत्स तुम ठीक कहते हो तुम्हारे लिए मैं माता और पिता दोनों हूं, और हर पल मैं तुम्हें संभालने के लिए, तुम्हें अपनी गोद में उठा लेने के लिए तत्पर रहता हूं, किन्तु! क्या तुम शिशु बन पाए? य फिर अपने बडप्पन, अपने अहम् के बोझ के वशीभूत होकर गोद से वंचित रह जाते हो। तुम जब एक निश्छल शिशु की मानिन्द सहज़-सरल, हल्के, शुद्ध और अन्दर-बाहर से बिलकुल एक जैसे हो जाओगे उस दिन तुम्हें मेरी गोद मांगनी नहीं पड़ेगी यह स्वतः ही तुम्हें मिल जाएगी। मेरी गोद सदैव मेरे एैसे शिष्य के लिए तैयार रहती है।
भक्ति मार्ग पर चलने वाले भक्तों के लिए प्रेरणाप्रद यह सुविचार आज प्रस्तुत किए गए दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के देहरादून स्थित निरंजनपुर आश्रम सभागार में। अवसर था रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का। संस्थान के संस्थापक एवं संचालक सद्गुरू आशुतोष महाराज की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी ने इन्हें प्रस्तुत करते हुए अपने विचार प्रवाह को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भक्त के प्रबल भावों के वशीभूत होकर भगवान खिंचे चले आते हैं, भक्त का भोलापन उसे ईश्वर की निकटता प्रदान करता है। जप-तप-व्रत से नहीं अपितु भोले भाव, सरल मन और निश्छल विचार प्रभु को आकृषित किया करते हैं। भगवान स्वयं कहते हैं कि- ‘‘निर्मल मन जन सोई मोहे पावा, मोहे कपट-छल-छिद्र तनिक न भावा’’ सद्गुरू प्रदत्त ब्रह्म्ज्ञान के भीतर भक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त करने की अद्वितीय क्षमता निहित होती है। मन की निर्मलता और भावों की प्रबलता को एक भक्त के भीतर रोपित कर ‘ब्रह्म्ज्ञान’ सद्गुरूदेव का वह अमोघ दिव्य अस्त्र है जो कि एक साधक के भीतर के समस्त दुर्गुणों, सारी बुराईयों, अनेक विकारों का संहार कर देने की शक्ति रखता है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए महापुरूषों ने मन की निर्मलता पर जोर दिया है। जैसे-जैसे यह मन निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे परमात्मा से दूरियां भी मिटती जाती हैं। कबीर साहब इसी निर्मल मन पर बड़ी सुन्दर बात कहते हैं- ‘कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर, पाछे-पाछे हरि फिरंे कहे कबीर-कबीर।’ साध्वी जी ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी तथा योगानन्द परमहंस से संबंधित अनेक दृष्टांतों को भक्तजनों के समक्ष रेखांकित करते हुए उनका मार्ग दर्शन किया साथ ही अकबर-बीरबल प्रसंग सुनाकर समझाया कि शिष्य को केवल गुरू की बातों पर ही ध्यान देना चाहिए। गुरू की प्रसन्नता ही शिष्य का धर्म है। गुरू जैसा चाहें शिष्य वैसा ही बन जाए इसी में शिष्य का कल्याण है। भावों का श्रंगार ही गुरू को पसन्द है।
कार्यक्रम में साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती ने भी अपने उद्बोधन में संगत को बताया कि भवसागर से पार होने का यदि कोई शास्त्रोक्त मार्ग है, तो वह है सद्गुरूदेव द्वारा प्रदत्त ‘ब्राह्म्ज्ञान’ का मार्ग। स्वच्छ हृदय तथा बालक मन से ही गुरू को प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य को अपनी कमियों को स्वीकार कर लेने पर ही क्षमा मिलती है। सर्व अर्न्तयामी गुरू से कुछ भी नहीं छुप सकता। गुरू त्रिकालदर्शी हुआ करते हैं। गुरू शिष्य के सम्बन्ध में उससे भी कहीं अधिक भूत, वर्तमान तथा भविष्य के बारे में जानते है। विदुषी जी ने श्री राम मंदिर के शुभारम्भ पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि राम अर्थात कण-कण में रमण करने वाली वह शक्ति तो अत्यन्त अनुकरणीय है। भगवान जब-जब भी मानव कल्याण के लिए देह धारण करते हैं तो मात्र मनुष्य ही नहीं अपितु प्रकृति और पशु-पक्षी तक को अपनी ओर अकृषित कर लिया करते हैं। पूर्व समय में तो भक्तों का जीवन कठिनाईयों से भरा रहा किन्तु आज तो भक्ति को सरल-सहज़ और सुलभ बना दिया गया है। साधकों का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि भक्ति में बहाने नहीं चलते। मन के कहे अनुसार भक्ति नहीं हुआ करती बल्कि गुरूमुख होकर ही भक्ति मार्ग पर चला जा सकता है। शिष्य के लिए तो गुरू ही जरूरी हैं। यह मानव मन ही सारी समस्याओं की जड़ है। मन ही बन्धनकारी है। मन के बन्धन से मुक्ति का यही शास्त्र सम्मत उपाए है कि एैसे महापुरूष की संगत और सेवा की जाए जो स्वयं बन्धनों से मुक्त हो तथा अपनी शरणागत को भी समस्त बन्धनों से मुक्त कर देने की विलक्षण क्षमता रखते हों। इसी पर कहा भी गया-बन्धे को बन्धा मिले छूटे कौन उपाए, कर सेवा निर्बन्ध की पल में लेय छुड़ाए।